हर्फ़-ए-शिकवा न लब पे लाओ तुम - Aatish Bahawalpuri

हर्फ़-ए-शिकवा न लब पे लाओ तुम
ज़ख़्म खा कर भी मुस्कुराओ तुम

अपने हक़ के लिए लड़ो बे-शक
दूसरों का न हक़ दबाओ तुम

सब इसे दिल-लगी समझते हैं
अब किसी से न दिल लगाओ तुम

मस्लहत का यही तक़ाज़ा है
वो न मानें तो मान जाओ तुम

अपना साया भी अब नहीं अपना
अपने साए से ख़ौफ़ खाओ तुम

मौत मंडला रही है शहरों पर
जा के सहरा में घर बनाओ तुम

दोस्तों को तो ख़ूब देख चुके
दुश्मनों को भी आज़माओ तुम

रास्ती पे मदार हो जिस का
अब न वो बात लब पे लाओ तुम

जो भला माँगते थे सर बुत का
इन बुज़ुर्गों को फिर बुलाओ तुम

- Aatish Bahawalpuri
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