यूँ हक़ीकी इश्क़ की मुझ पर चढ़ी तासीर है
हर बशर में ही ख़ुदा की दिख रही तस्वीर है
हर जगह पर मालिकाना हक़ जताने वाले सुन
दुनिया में दो ग़ज़ ज़मीं ही बस तेरी जागीर है
छोड़कर अपनी ख़ुदी जो झुक गया अल्लाह के दर
नेमतों से फिर चमकती उसकी ये तक़दीर है
देखकर बिगड़ी हुई आब-ओ-हवा इस शहर की
बस दुआ ही लग रही अब आख़िरी इक्सीर है
जो रज़ा मौला की हो तो ठीक है वरना सुनो
ज़िंदगानी कश्मकश है एक टेढ़ी खीर है
गर मिटानी दूरियाँ जो अपनों के हैं दरमियाँ
जान लो फिर हल बस इसका आपसी तक़रीर है
ज़िन्दगी है किस बला का नाम 'दिलबर' जान ले
ख़्वाहिशों से बस बनी ये झूटी इक तामीर है
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