है शहर में मिरे भी इक ऐसा हरीफ़-ए-जाँ

  - divya 'sabaa'

है शहर में मिरे भी इक ऐसा हरीफ़-ए-जाँ
कुछ जानता नहीं है मगर है अरूज़-दाँ

आजिज़ हैं लोग उसके ज़बान-ओ-बयान से
अहल-ए-ज़बान कहते हैं सब उसको बद-ज़बाँ

क़दमों तले ज़मीन नहीं एक इंच भी
फिर भी उठाए फिरता है सर पर वो आसमाँ

ग़ज़लें किसी को हों कभी भाती नहीं उसे
अपने हर एक शेर को कहता है जाविदाँ

इसकी मुख़ालिफ़त कभी उसकी मुख़ालिफ़त
हैं लोग उस से और वो लोगों से बद-गुमाँ

ख़ामी तलाश करता है सबके कलाम में
मुँह मारता ही रहता है हरदम यहाँ वहाँ

जो कह रहा है समझो उसे हर्फ़-ए-आख़िरी
महफूज़ है वो शख़्स जो करता है हाँ में हाँ

  - divya 'sabaa'

More by divya 'sabaa'

As you were reading Shayari by divya 'sabaa'

Similar Writers

our suggestion based on divya 'sabaa'

Similar Moods

As you were reading undefined Shayari