इश्क़ को मोजिज़ा समझते हो
कैसे नादाँ हो क्या समझते हो
अपनी ज़िद का है तुमको पास बहुत
और मेरी अना समझते हो
हसरतों के वो चार आँसू हैं
जिन को तुम नक़्श-ए-पा समझते हो
दर्द-ए-दिल को दवा है ख़ुद अपनी
तुम इसे ला-दवा समझते हो
राह-ए-उल्फ़त में ज़िन्दगानी के
लुट गया क़ाफ़िला समझते हो
दिल-लगी तो नहीं ये दिल की लगी
आग से खेलना समझते हो
रंज-ओ-ग़म यास-ओ-हसरत-ओ-हिरमाँ
रस्म-ओ-राह-ए-वफ़ा समझते हो
वो तो ख़ुद की भी हो सकी न कभी
जिस को अपनी 'सबा' समझते हो
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