जालसाज़ी से सियासत की दुकाँ क्या ख़ाक चलती
चापलूसी से हुकूमत की दुकाँ क्या ख़ाक चलती
कोई धोका ही अगर दे प्यार से अक्सर किसी को
बेवफ़ाई से मुहब्बत की दुकाँ क्या ख़ाक चलती
ज़हर जब भी फैलता है झूठ कोई भी हवा में
अब बताओ यार नफ़रत की दुकाँ क्या ख़ाक चलती
कोई वाइज़ ही ग़लत जब काम करता है तभी क्या
फिर वहाँ कैसे नसीहत की दुकाँ क्या ख़ाक चलती
देखना जब भी 'मनोहर' साथ तानाशाह आते
भूल जाओ तब रि'आयत की दुकाँ क्या ख़ाक चलती
As you were reading Shayari by Manohar Shimpi
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