सच ग़लत का तलबगार है ही नहीं
इसलिए कोई तकरार है ही नहीं
शक्ल सूरत लगे और ही कुछ तभी
मरकज़ी है वो किरदार है ही नहीं
इश्क़ का रंग जब और भद्दा लगे
बेवफ़ा है वफ़ादार है ही नहीं
बद-म'आशी जहाँ पर कहीं भी रहे
फिर वहाँ कोई सरकार है ही नहीं
इश्क़ पर ही लिखी है "मनोहर" ग़ज़ल
क्या मुहब्बत करे प्यार है ही नहीं
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