ऐ साक़िया अब क्या गिला उस नाम से
रग़बत कहाँ है छोड़ अब इक जाम से
हाँ ज़िक्र भी उसका किया करता कभी
अब डर नहीं लगता मुझे अंजाम से
रातें कहाँ कटतीं मेरी अब हिज्र में
क्या सोच के तन्हा रहा हूँ शाम से
अब मयकदे में भी ख़ुशी है ग़म कहाँ
फिर दर्द वो तेरा गया क्या जाम से
बे- ख़ौफ़ ही सच में जिए सब साथ में
डरते नहीं थे तब किसी अंजाम से
हासिल किया पाया सभी सम्मान से
होता नहीं मायूस छोटे काम से
अब फ़र्क़ क्या पड़ता मनोहर नाम से
जो थे ज़बाँ पर वो हुए गुमनाम से
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