इश्क़ के मक़्तल चलो ज़ख़्म-ए-जिगर को देखते हैं
लोग बाज़ीगर के कैसे अब हुनर को देखते हैं
ख़ास ही रश्क-ए-क़मर जब इत्तिफ़ाक़न ही दिखे तो
छोड़ के सब काम उस के इक नज़र को देखते हैं
आ गए मिलने अकेले जान लो पहचान भी लो
इस सदी में ऐसे ही सब हम-सफ़र को देखते हैं
राह चलते मरहले भी ख़ूब आते और जाते
बैठ के कुछ लोग तन्हा रहगुज़र को देखते हैं
काश नामा-बर सभी को राज़ ख़त के बोल देते
दिल-लगी में फिर इज़ाफ़े के असर को देखते हैं
हम-नशीं के साथ हो तो ख़ौफ़ क्या परवाह किस की
इश्क़ज़ादे तब इधर या फिर उधर को देखते हैं
महफ़िलों का लुत्फ़ कितने लोग लेते हैं 'मनोहर'
ख़ास हूर-ए-ऐन हो तो उस नज़र को देखते हैं
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