मौसम-ए-गुल आया है यारो कुछ मेरी तदबीर करो
यानी साया-ए-सर्व-ओ-गुल में अब मुझ को ज़ंजीर करो
पेश-ए-सआयत क्या जाए है हक़ है मेरी तरफ़ सो है
मैं तो चुप बैठा हूँ यकसू गर कोई तक़रीर करो
कान लगा रहता है ग़ैर उस शोख़ कमाँ अबरू के बहुत
इस तो गुनाह-ए-अज़ीम पे यारो नाक में उस की तीर करो
फेर दिए हैं दिल लोगों के मालिक ने कुछ मेरी तरफ़
तुम भी टुक ऐ आह-ओ-नाला क़ल्बों में तासीर करो
आगे ही आज़ुर्दा हैं हम दिल हैं शिकस्ता हमारे सब
हर्फ़-ए-रंजिश बीच में ला कर और न अब दिल-गीर करो
शेर किए मौज़ूँ तो ऐसे जिन से ख़ुश हैं साहिब-ए-दिल
रोवें कुढ़ें जो याद करें अब ऐसा तुम कुछ 'मीर' करो
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