कन्हाई मेरे उर पर चित्रिका कढ़ती ही जाती है
तुम्हारे पद नखों की कांति मन चढ़ती ही जाती है
मैं जितनी मर्तबा फिर-फिर तुम्हें देखूँ मेरे मोहन
मेरी यह प्यास दर्शन की प्रभो बढ़ती ही जाती है
ये कोई मोहिनी है या कि शिव शंकर की घोटी भाँग
किसी मय के समुंदर सी मुझे चढ़ती ही जाती है
बुला ले मुझको ब्रज में या मेरे ही घर चला आ तू
मेरी ये रूह तेरे प्रेम ख़त पढ़ती ही जाती है
मेरे केशव पिया तुमसे मिलन की लौ लगी ऐसी
कहानी नित नई यह प्रेयसी गढ़ती ही जाती है
ये मन की मंत्रणाओं पर भटकती फिर रही दर-दर
मगर मुझ जीव पर इस दोष को मढ़ती ही जाती है
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