"लज़्ज़त"

  - kapil verma

"लज़्ज़त"

कुछ पल को ये लम्हे रुक से गए थे जब
उसने मुझसे यह बोला
आज तुम्हारे मुँह में कुछ
दिखते हैं अनकहे से शब्दों के टुकड़े
मैं घबराया सा उन टुकड़ों को ढक कर
यह बोला तब
शायद मेरी दर्द की गोली टूट गई होगी

फिर मैं बात घुमाने की कोशिश में बोल पड़ा
यार पता है अब ये हल्की सी मीठी
लगती है मुझको
उसने भी यह आसानी से मान लिया
साफ़ पता था उसको इनकी ये लज़्ज़त
मौत के साथ ही जाती है

बातों-बातों में उसने अपना ये राज़
ज़ाहिर किया कि उसको तो अपनी गोली
अब तक कड़वी ही लगती है
मैने सोचा वक़्त हलावत लेकर अपने साथ
आ तो जाता है लेकिन उसमें भी
वक़्त ज़रा लगता तो है
जिसने भी उसको ये दी है
वो शायद वक़्त से भी ताक़तवर होगा

फिर दिल के इक कोने से यह निकला तब
यकसाँ मैं भी तो यह शीरीनी अपनी
नाम उसके कर सकता हूँ ना
इतना ही सोचा बस और नए टुकड़े
मुँह में मेरे पनप गए
ख़ौफ़-ज़दा था मैं कि कहीं ये फिसल न जाएँ
तो कुछ को मैं निगल गया
कुछ सीने में अटक गए

  - kapil verma

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