ख़ुद में हिम्मत इतनी तो ऐ लोगों लानी चाहिए
सब को अब आवाज़ हक़ की भी उठानी चाहिए
इस तरह भी अपनी क़िस्मत आज़मानी चाहिए
इक कहानी ख़ुद हमें अपनी बनानी चाहिए
अब सहे ज़ुल्म-ओ-सितम आवाम कितना रात का
इसको अब तो इक सहर बे-हद सुहानी चाहिए
गर मिटाया है किताबों से हमारा नाम तो
फिर हमारी हर इमारत भी तो ढानी चाहिए
जो लड़ा दे आदमी को आदमी से दोस्तों
मुल्क से ऐसी सियासत अब मिटानी चाहिए
सुन लिया है यूँ बहुत हर झूठ अपने बारे में
अब हमें तुमसे फ़क़त सब सच बयानी चाहिए
इस वतन में चार-सू फैली है जो ये नफ़रतें
अब ज़रूरी है मुहब्बत भी बढ़ानी चाहिए
चाह 'आरिज़' है यही तन से मिरे किरदार से
हिन्द की मिट्टी की ख़ुशबू यार आनी चाहिए
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