हमने जिसे इक ज़िन्दगी कह कर गुज़ारी है
उसमें ख़ुशी कुछ भी नहीं बस ख़ाकसारी है
रंज-ओ-अलम के दौर में जैसी उदासी थी
उतनी ख़ुशी के मौसमों में सोगवारी है
अब तक दिल-ए-नाशाद में रहता है दौर-ए-जाम
इस जाम की हर शख़्स से इक बुर्दबारी है
आँगन जहाँ पर अब तलक बस ख़ार होते थे
इक फूल के आने पे कितनी ख़ुशगवारी है
मेरे जहाँ में मर्द अपनी राय देते हैं
मेरे जहाँ में औरतें मर्दों पे भारी है
'अंबर' कोई पूछे कि कैसे इश्क़ होता है
हमको बयाँ करने की कितनी बेक़रारी है
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