दर्द हर दिन इक नया मुझको चाहिए
आपकी इक बद-दुआ मुझको चाहिए
दौर के सर क्यूँ सभी अब इल्ज़ाम दें
आदमी होना भला मुझको चाहिए
बात गर कोई ग़लत मैं जब कह गया
बोलना अच्छा भला मुझको चाहिए
कोई मुश्किल रास्तों में तो साथ हो
यार ऐसी दिलरुबा मुझको चाहिए
इस दिखावे से भरी ये दुनिया में अब
सच दिखाता आइना मुझको चाहिए
छेड़ना मत अब मेरे ज़ख़्मों को यहाँ
दोस्त क़िस्सा अनकहा मुझको चाहिए
आग सीने में लगाए जो बात वो
आसमाँ सी बर्क़-ज़ा मुझको चाहिए
मुश्किलों का दौर चलता रुकता नहीं
अब नया इक रास्ता मुझको चाहिए
वो ख़यालों को ग़ज़ल कहता ही रहा
अब गला भी बे-सुरा मुझको चाहिए
छोड़कर उसने भुलाया माना मगर
पर वही इक बेवफ़ा मुझको चाहिए
मैं मुसलसल कहता हूँ दुनिया से यहाँ
इक उसी का बोलना मुझको चाहिए
इक अधूरी जो ग़ज़ल है ऐ दोस्तो
उस ग़ज़ल का क़ाफिया मुझको चाहिए
As you were reading Shayari by Lalit Mohan Joshi
our suggestion based on Lalit Mohan Joshi
As you were reading undefined Shayari