जिसकी ख़ातिर मैं दुआ करता रहा
वार मुझ पर वो नया करता रहा
बात मेरी कट रही है आज कल
सोचता हूँ क्या बुरा करता रहा
बीतने को आ गए छह साल भी
फिर न मिलने की दुआ करता रहा
क्या हुनर उसने ख़ुदा पाया यहाँ
बे-वफ़ाई हर दफ़ा करता रहा
ये नवंबर ख़ास लगता है नहीं
ज़हर दिल्ली की हवा करता रहा
मुफ़्लिसी है बाप को डसती रही
चार पैसों को जमा करता रहा
जो करे अक्सर यहाँ चालाकियाँ
वो घटाना जोड़ना करता रहा
दोस्त मेरा अपना मुझको बोलकर
ज़ख़्म को वो बे-दवा करता रहा
बज़्म में ऐसे सुना मुझको गया
शेर मानो बुत-नुमा करता रहा
दो दिलों को जोड़ने की बात कर
वो ग़ज़ल में यक-फ़ना करता रहा
उसकी यादों में 'ललित' खोया हुआ
ख़ुद को देखो लापता करता रहा
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