यक़ीनन दर्द की कोई जवानी थी - Lalit Mohan Joshi

यक़ीनन दर्द की कोई जवानी थी
मगर उम्मीद जीने की दिखानी थी

गली में वो ख़मोशी से गुज़रता है
ये आदत यार उसकी तो पुरानी थी

उदासी छा गई उसकी तो लहरों में
यही इक उस समंदर की कहानी थी

ग़ज़ल मेरी पढ़ो तुम दिल लगाकर सब
लिखी ग़ज़लें तो दुनिया को ज़बानी थी

अँधेरा रौशनी से हारता हर दिन
तो क्यूँ डरकर यूँ उसने हार मानी थी

कहीं इक शाम होने को चली ग़म की
वो तो बस इक बला-ए-ना-गहानी थी


ज़मीं पर मछलियाँ चलने लगी थीं फिर

ख़बर ये सब सिनेमा घर चलानी थी
मुसाफ़िर हम समंदर के हुए यारो

ग़ज़ल लहरों पे हमको यार ख़्वानी थी

- Lalit Mohan Joshi
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