महफ़िल-ए-अय्यार में शब की घड़ी करता रहा
हुक्म उस ने क्या दिया मैं शाइरी करता रहा
ज़ुल्मतों से कब न जाने दोस्ती सी हो गई
मैं जो उस की ज़िंदगी में रौशनी करता रहा
एक कन्या ने मुझे बे-ख़ुद किया जर्जर किया
ज़िंदगी भर मैं उसी की तिश्नगी करता रहा
घोर तप से मैं ने देवी-देवता हर्षित किए
वो अँधेरी ताक़तों से दोस्ती करता रहा
आत्माओं को भी मुझ से इश्क़ गहरा हो गया
इश्क़ में उसके यूँ ख़ुद की आहुती करता रहा
प्यार की ख़ातिर जफ़ाओं को सहा ज़िल्लत सही
मैं अज़ीज़ों से मिरे ही दुश्मनी करता रहा
मेरी बीनी दूरगामी होने का क्या फ़ाएदा
जब वो मेरे पीठ-पीछे दिलबरी करता रहा
इश्क़ जितना सूफ़ियाना बा-अदब मैंने किया
जाल-साज़ी यार उतनी फ़ितरती करता रहा
कोई पैसे दे के पल-भर में ही उस को ले गया
उस की मैं दहलीज़ पर ही बंदगी करता रहा
पाने को सानिध्य उसका चाह सब के दिल में थी
यार मेरा सब दिलों की तस्करी करता रहा
इश्क़ में नित वस्ल होना लाज़िमी इक रस्म है
तय हुई हर वस्ल को वह मुल्तवी करता रहा
मैंने उस के नाम की दरगाहों पर माँगी दुआ
उस के ख़्वाबों में गमन इक अजनबी करता रहा
मेरी कश्ती मेरा माँझी और रवानी भी मेरी
पर समुंदर उस का था जो त्रासदी करता रहा
ग़म लगा रेहलत हुई फिर रूह भी रुख़्सत हुई
जिस्म लेकिन दर-ब-दर ही ख़ुद-कुशी करता रहा
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