उसने हमारी जानिब देखा तो कम बनेंगे
पर ये नहीं हुआ तो लाखों ही ग़म बनेंगे
दिन रात मैं इसी में रहता हूँ मुब्तला, कब
चौख़ट पे मेरे घर की उसके कदम बनेंगे
उसकी छुअन को यारों ये मोजिज़ा अता है
रख दे जहाँ भी पाओं बाग़-ए-इरम बनेंगे
हिजरत के, राब्तों के, इंसानी चाहतों के
उससे ही पूछकर तो सारे नियम बनेंगे
उस जैसे हम कहीं से थोड़ा भी बन सके तो
ये लिख के दे रहे हैं, उसकी कसम, बनेंगे
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