बिछड़ कर फिर वहीं मिलना कभी आसाँ नहीं होता - Sachin Sharmaa

बिछड़ कर फिर वहीं मिलना कभी आसाँ नहीं होता
मुहब्बत का नया रस्ता कभी आसाँ नहीं होता

तू ग़ालिब मीर मोमिन का पुजारी है मगर सुन ले
ग़ज़ल की राह पे चलना कभी आसाँ नहीं होता

वो किस को चाहती है और किससे प्रेम करती है
मुहब्बत में कोई तुक्का कभी आसाँ नहीं होता

छलक आती हैं आँखें बचपने को याद करके अब
दुबारा फिर वो दिन मिलना कभी आसाँ नहीं होता

दया बिल्कुल नहीं आती थी सर जी कूटते थे जब
अरे लिखना सही इमला कभी आसाँ नहीं होता

लिखावट एक जैसी है ये दुनिया के हबीबों की
तबीबों का लिखा पढ़ना कभी आँसा नहीं होता

अभी भी दफ़्न है सीने में वो उजड़ी हुई दुनिया
पुरानी बातो पे चर्चा कभी आसाँ नहीं होता

ख़ज़ाना चाहते हो और मुश्किल भी नहीं कोई
ख़ज़ाना का कोई नक़्शा कभी आसाँ नहीं होता

जबाँ उर्दू भी है अच्छी मगर नौ सिखिया हम ठहरे
ग़ज़ल के पहलू को छूना कभी आसाँ नहीं होता

हज़ारों शेर कहने को तो कह सकते सचिन लेकिन
ग़ज़ल के शेरों में मक़्ता कभी आसाँ नहीं होता

- Sachin Sharmaa
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