एक पिघलते चाँद की कतली, एक गुज़रती रात
धू-धू जलती सूखी यादें, टिम-टिम करती रात
हर दिन आँखों के सिरहाने, लाशों का अंबार
एक सुबह के ख़्वाब की ख़ातिर हर दिन मरती रात
माज़ी के बीहड़ जंगल में , खोजे बीता दौर
लम्हों के सूखे पत्तों सी, रोज़ बिखरती रात
याद नहीं कब आँख लगी, कब जागे सोते नैन
याद नहीं कब आई सुबहा , और बिसरती रात
लम्बी एक कहानी उसकी, मुट्ठीभर 'अल्फाज़'
वक़्त गुज़रता ख़ामोशी में, बातें करती रात
As you were reading Shayari by Saurabh Mehta 'Alfaaz'
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