पुरानी बात पर आख़िर, परेशाँ क्यूँ हुआ जाए

  - Saurabh Mehta 'Alfaaz'

पुरानी बात पर आख़िर, परेशाँ क्यूँ हुआ जाए
भरे ज़ख्मों को रह-रह कर भला क्यूँ कर छुआ जाए

मोहब्बत - आज़माई भी मोहब्बत में रिवायत है
मुहासिल है शिकस्त-ए-दिल, किसी जानिब जुआ जाए

इबादत जब कोई मुमकिन हो, इतना कमसकम कीजे
क़यामत तक के सजदे हों, फ़लक तक ये दुआ जाए

परेशाँ हूँ मैं दिल की साफ़गोई और सदाक़त से
ज़माना झूठ का, सम्त-ए-मुख़ालिफ़ ये मुआ जाए

भले लोगों की दुनिया में भला होना तो अच्छा है
मगर ये लाज़मी है के यहाँ बदतर हुआ जाए

उधर स्याही लिए वो लफ़्ज़ सफ़हों पर गिराते हैं
इधर 'अल्फ़ाज़' हैं, जिनसे लहू भी गेरुआ जाए

  - Saurabh Mehta 'Alfaaz'

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