गुज़र गई है अभी साअत-ए-गुज़िश्ता भी
नज़र उठा कि गुज़र जाएगा ये लम्हा भी
बहुत क़रीब से हो कर गुज़र गई दुनिया
बहुत क़रीब से देखा है ये तमाशा भी
गुज़र रहे हैं जो बार-ए-नज़र उठाए हुए
ये लोग महव-ए-तमाशा भी हैं तमाशा भी
वो दिन भी थे कि तिरी ख़्वाब-गीं निगाहों से
पुकारती थी मुझे ज़िंदगी भी दुनिया भी
जो बे-सबाती-ए-आलम पे बहस थी सर-ए-बज़्म
मैं चुप रहा कि मुझे याद था वो चेहरा भी
कभी तो चाँद भी उतरेगा दिल के आँगन में
कभी तो मौज में आएगा ये किनारा भी
निकाल दिल से गए मौसमों की याद 'अजमल'
तिरी तलाश में इमरोज़ भी है फ़र्दा भी
Read Full