वो पुरानी सी मोहब्बत याद आ आ कर रुलाती है
ख़ूबसूरत क्यूँ मोहब्बत को क़लम मेरी बताती है
छोड़ आया हूँ शिफ़ा ख़ाना वगैरह शहर का मैं भी
गाँव में बेहतर है छाँव नीम की दादी बताती है
घर के आँगन में बहन मेरे लिए कुछ रेत लाकर के
नाज़ से तोता कबूतर और गौरय्या बनाती है
पास घर के ही किसी इक बाग़ से लाकर करौंदा कुछ
माँ मिरी छत पर सुखाकर फिर उसे सिरका बनाती है
सोचता हूँ मैं कोई नॉवेल ही लिख डालूँ उसे सुन कर
साँझ को इक इक कहानी जो मिरी नानी सुनाती है
बाल बच्चे और बीवी भी नहीं अब तक समझ पाए
घर में इक माँ ही समझती है कि जो मुझको मनाती है
डेढ़ दो ही साल की होगी मगर प्यारी सी है बेटी
बैठ कर काँधे पे मेरे गाँव भर मुझको घुमाती है
पेड़ है पीपल का जिस पे दूधिया साड़ी में बैठी इक
गाँव के बच्चों को अक्सर शाम में डायन डराती है
इक हवेली थी कि जिस खिड़की से मेरा दिन निकलता था
गाँव में सूनी हवेली की वही खिड़की रुलाती है
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