दिल-ओ-नज़र में अगर रश्क-ए-हूर है कोई
कोई बताए कि मेरा क़ुसूर है कोई
अगरचे मेरी रसाई से दूर है हर शय
मिरी निगाह की ज़द में ज़रूर है कोई
वुफ़ूर-ए-ग़म में भी कैफ़-ओ-नशात का आलम
निज़ाम-ए-दहर में वजह-ए-सुरूर है कोई
कभी कभी तो जुदाई में यूँ हुआ महसूस
कि ख़ल्वतों में भी मेरे हुज़ूर है कोई
इधर गुदाज़-ए-मुहब्बत में दिल की सरशारी
उधर ख़ुमार-ए-जवानी में चूर है कोई
वो ही चमक वो ही ताबिश वो ही फुसूँ-कारी
तिरा जमाल है या बर्क़-ओ-तूर है कोई
सुनीं 'बशर' की ये बातें तो बरमला बोले
तिरी समझ में यक़ीनन फ़ुतूर है कोई
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