अब दिल भी अपने भेद हमीं से छुपाए है
पूछे कोई कि क्यूँ उसी काफ़िर पे आए है
जब भी तिरी तलाश को निकले भटक गए
है कोई रास्ता जो तिरे घर को जाए है
दीवानगी-ए-शौक़ ने क्या हाल कर दिया
अब तो निगाह-ए-नाज़ भी दामन बचाए है
अब ख़ल्वतों में लुत्फ़-ए-तसव्वुर नहीं रहा
अब तो ख़याल-ए-यार भी डर-डर के आए है
अब शम'अ इंतिज़ार की हम तो बुझा चुके
दिल फिर भी तेरी आस के दीपक जलाए है
है जान इज़्तिराब में नब्ज़ें निढाल हैं
वो कौन है जो दूर खड़ा मुस्कुराए है
ये ज़िन्दगी तो हमको कभी की भुला चुकी
अब क्या करें कि मौत भी आँखें चुराए है
क्या बात है कि कोई किसी का नहीं रहा
अब तो 'बशर' ये शहर भी पीछा छुड़ाए है
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