जब भी आता है मदारी ये तमाशा ले कर
लोग भी दौड़े चले आते हैं सिक्का ले कर
रास्तों पर तो मुसाफ़िर के सिवा कोई नहीं
चल तुझे ढूँडते हैं अब कोई नक़्शा ले कर
आज तक मैंने कभी चाँद से बातें नहीं की
रोज़ घर आता वगरना कोई मिसरा ले कर
सुर्ख़ गालों पे ज़रा अश्क बहा ले जानाँ
कब तलक यूँ ही चलेगा तू दिलासा ले कर
अब यही ठीक है दिल तोड़ दे तू धोखे से
मैं भी जी लूँगा कोई ख़्वाब अधूरा ले कर
जब से निकला हूँ तिरे हिज्र के साए से मैं
रोज़ आता हूँ मदीने में मुसल्ला ले कर
मेरी औक़ात दिखा देती है सहरा की तपिश
जब निकल पड़ता हूँ मैं आँख में सपना ले कर
सींचना होगा तुम्हें ख़ुद ही ज़मीनों को 'हर्ष'
कोई आएगा नहीं अब कि मुदावा ले कर
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