चाह पाने की नहीं खोने का कुछ डर भी नहीं
ग़म जुदाई का मुझे रत्ती बराबर भी नहीं
नीम और बरगद नहीं सड़के हैं पीपर भी नहीं
फिर कहाॅं जाऍं परिंदों के कोई घर भी नहीं
जब से उसका हो गया फिर मैं कहाॅं बाक़ी रहा
लोग बाहर ढूँढते हैं मैं तो अंदर भी नहीं
जी मैं आता है उसे बंदी बना लूॅं ख़्वाब में
पर मिरी आँखों में तो रुकता वो पल भर भी नहीं
शोहरतें इंसान को पंछी बना देती हैं क्या
वो भी उड़ते हैं हवा में जिनके तो पर भी नहीं
जीते जी तमग़ों से शायद कुछ भला होता मगर
क्या करें दस्तार का जब जिस्म पे सर भी नहीं
किस क़दर इस दौर की रंगीनियों में खो गए
हमको अब अस्लाफ़ के पैग़ाम अज़बर भी नहीं
अब हरम की पासबानी आप ख़ुद ही कीजिए
अब अबाबीलो के लश्कर और कंकर भी नही
हाल क्या बतलाऊॅं मैं दिल के लुटे ऐवान का
"इतना वीराँ तो मज़ारों का मुक़द्दर भी नहीं"
मेरी आमद से भला क्यों आइने डरने लगे
मेरे हाथों में तो साहिल कोई पत्थर भी नहीं
Read Full