"हैं जितनी भी किताबें सब"
हैं जितनी भी किताबें सब
मेरी इस ज़िन्दगानी में
उन्हीं सारी किताबों की
मेरी हर इक कहानी में
जितने हैं सभी क़िस्से
बहुत ही ख़ास रहते हैं
मुझे सब याद रहते हैं
मगर उन सारे क़िस्सों में
कोई ऐसा भी क़िस्सा है
जो मेरे सारे क़िस्सों को
सदा बेरंग करता है
मुझे वो तंग करता है
मुझको तंग करना बस
यही इक भेद है उसमें
वरक़ के दरमियाँ कोई
ज़रा सा छेद है उसमें
कहानी का वही हिस्सा
मैं जब भी खोलता हूँ तो
लिखे हैं हर्फ़ जो उनको
लबों से बोलता हूँ तो
बड़े अंदाज़ से वो सब
इकट्ठा हो तो जाते हैं
मगर उस छेद से गिरकर
सभी हर्फ़ खो भी जाते हैं
Read Full