Jafar Sahni

Jafar Sahni

@jafar-sahni

Jafar Sahni shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Jafar Sahni's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
  • Nazm
बैठा था तन को ढाँक के जो गर्म शाल से
मुश्किल में पड़ गया वो सितारों की चाल से

ख़ामोशियों की राह पे हो कर के गामज़न
रखना कभी न सोच का रिश्ता मलाल से

उम्मीद ऐसी उन से मतानत की थी नहीं
बच्चे बिगड़ गए हैं बहुत देख भाल से

दम-ख़म तो कुछ नहीं था हक़ीक़त के नाम पर
घबरा गया जहान हमारी मजाल से

कुछ मस्लहत के नाम पे चुप चाप हम रहे
वाक़िफ़ थे वर्ना वक़्त के पोशीदा हाल से

चादर पे आसमान की बिखरी थी चाँदनी
आरास्ता ज़मीन थी इस के जमाल से

तुम शहर जा रहे हो तो जाओ मगर वहाँ
अरमाँ मिलेंगे देखना बेहद निढाल से

अफ़्सुर्दा फ़िक्र थी जो क़दामत के ख़ोल में
शादाब हो गई है वो रौशन ख़याल से

इक पत्ते की बिसात तुम्हारी है 'साहनी'
मिट्टी में जा मिलोगे जुदा हो के डाल से
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Jafar Sahni
अंदाज़ किसी का है सदा और किसी की
है चोट कोई और दवा और किसी की

तब्दील-शुदा शख़्स नज़र आने लगा वो
तेवर में सजा कर के अदा और किसी की

इक शोख़ से सैराब नज़र होने लगी है
क़ाबिज़ है मगर दिल पे हया और किसी की

रहता था गुरेज़ाँ जो सदा मेरी वफ़ा से
ढूँडे है वही आज वफ़ा और किसी की

ख़ामोश फ़ज़ा थामे रहा वो मिरे हक़ में
मैं ले के चला आया दुआ और किसी की

तूफ़ाँ में चमन अपने परेशाँ तो बहुत था
आसूदा नहीं पा के सबा और किसी की

लिखा ही नहीं जुर्म मिरे नाम के आगे
हूँ पा के बहुत ख़ुश मैं सज़ा और किसी की

है ख़ूब दरख़्शाँ सा नए शहर में आ कर
चिपका के बदन पर वो ज़िया और किसी की

ऐ 'साहनी' क्यूँ ऐसा हुआ मुझ को बताना
रौशन है तिरे घर में फ़ज़ा और किसी की
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Jafar Sahni
पीछा ही नहीं छोड़ती घर बार की ख़ुश्बू
रस्ते से अयाँ है दर-ओ-दीवार की ख़ुश्बू

कब कैसे कहाँ से बनी पुर-पेच गली में
बेचैन किए रहती है असरार की ख़ुश्बू

मैं अपने तसव्वुर में हूँ ख़ुश-हाल बरादर
क़दमों में पड़ी है मिरे दरबार की ख़ुश्बू

तुम अजनबी क़दमों से निकल जाओ मुसाफ़िर
पाना है किसी और को गुलज़ार की ख़ुश्बू

अश्कों के झरोके में भी दर आई है अक्सर
हैरान तबस्सुम में बसी यार की ख़ुश्बू

इक गुल पे क़नाअत है कहाँ बहती हवा को
हर-वक़्त लिए फिरती है दो-चार की ख़ुश्बू

बरसों जो रही दफ़्न किसी ज़ख़्म-ए-जिगर में
पायल से उगी आज वो झंकार की ख़ुश्बू

आवाज़ पे तकिया न लगाना कभी 'जाफ़र'
ख़ामोश सदा देती है उस पार की ख़ुश्बू
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Jafar Sahni
मोहब्बतों की इनायतों से हुआ है दिल ये ख़राब बाबा
ख़ुदा-परस्ती का तौर देखो बना है कैसा अज़ाब बाबा

झुलस रहा है ज़मीं का सीना किरन किरन से दुआ करो तुम
तरावतों की दो बूँद ले कर यहाँ भी बरसे सहाब बाबा

है फ़ाक़ा-मस्ती का सिलसिला जब तो आए सख़्ती क़दम में कैसे
ये ना-तवानी की लरज़िशें हैं न पी है मैं ने शराब बाबा

फ़ज़ा की जब मो'तबर मतानत गुरेज़-पा हो के रह गई है
कहाँ लिखेगा वो ख़ामुशी से सवाल पढ़ कर जवाब बाबा

हज़ार तफ़तीश पर मुझे अब पता चला है कि मेरे दिल को
बहुत ही बेचैन कर गया था सहर से शब का हिजाब बाबा

तरह तरह से तबस्सुमों में लपेट कर ख़्वाहिशों ने लूटा
किसे छुपाऊँ कहाँ से बोलूँ बताओ मुझ को वो ख़्वाब बाबा

मुरव्वतों की मसर्रतों की कहानियाँ दर्ज की गई थीं
जगह जगह से फटी पड़ी है न खोलो अब वो किताब बाबा

सऊबतों की अफ़ादियत से कोई भी मुंकिर न हो सकेगा
कि ख़ार के दरमियान रह कर महक रहा है गुलाब बाबा

वो साठ-बासठ की सीढ़ियों पर थकावटों से है चूर फिर भी
समेट कर हौसलों को 'जाफ़र' तलाशता है शबाब बाबा
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Jafar Sahni
एक मा'सूम तमन्ना की फ़ज़ा थी कल तक
ज़िंदगी ऐसी कहाँ होश-रुबा थी कल तक

ग़ैज़ आँधी का बना अब है मुक़द्दर मेरा
दिल के आँगन में महकती सी सबा थी कल तक

नग़्मगी आ गई किस तौर से उस के लब पर
जिस की आवाज़ तरन्नुम से जुदा थी कल तक

आज ख़ामोश बहुत बज़्म-ए-बहाराँ क्यूँ है
गुनगुनाते से लिबादे में हवा थी कल तक

हुस्न की शोख़-नज़र माँगे है क़ीमत अपनी
झुकती आँखों के दरीचे में हया थी कल तक

ये जो हंगामों से मरबूत है महफ़िल मेरी
कैफ़-ज़ा दिल-रुबा बुलबुल की सदा थी कल तक

सर-निगूँ वक़्त के क़दमों में है ख़्वाहिश अपनी
वर्ना हर साँस में इक मौज-ए-अना थी कल तक

अब कहाँ शौक़ को मिलता है बढ़ावा 'जाफ़र'
नर्म पलकों में घुली एक अदा थी कल तक
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Jafar Sahni
पुर-शोर तलातुम का मुदावा कोई आहट
संगीन फ़ज़ा में थी दिलासा कोई आहट

बे-दर्द हवाओं ने हिरासाँ तो किया था
थी साथ मगर उन के शनासा कोई आहट

जब काली घटा क़हर का सामान बनी थी
दे कर गई बिजली का उजाला कोई आहट

गोशे में तसव्वुर जहाँ बीमार पड़ा था
करती थी मोहब्बत से इशारा कोई आहट

ख़ामोश ख़यालों के क़फ़स में तू पड़ा रह
जागेगी नहीं दर पे दोबारा कोई आहट

सैलाब के नर्ग़े में घिरी जब से तमन्ना
इक सपना दिखाती है सुहाना कोई आहट

करती है कभी ग़ैज़ की बाँहों को पकड़ कर
बेचैन समुंदर में तमाशा कोई आहट

इक याद का आँचल जो उड़ा तेज़ हवा में
देने लगी हमदर्द बुलावा कोई आहट

रहमत भरी आँखों से ज़रा देखना 'जाफ़र'
तूफ़ान में ढूँडे है सहारा कोई आहट
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Jafar Sahni
ख़ामोश निगाहों से वो यलग़ार का होना
मिलता है नफ़ी में किसी इक़रार का होना

महफ़ूज़ मिरे ख़्वाब को बतलाता नहीं है
इक अक्स-ए-तरद्दुद में निगह-दार का होना

हैरत में नहीं डालता अब शहर-ए-गुमाँ को
हर रोज़ लहू-रंग में अख़बार का होना

आसार-ए-तअ'ल्लुक़ को जला देता है अक्सर
गुमनाम किसी दर्द में ग़म-ख़्वार का होना

रस्ते के तकल्लुफ़ से चलो बात करें कुछ
मुमकिन नहीं हर मोड़ पे घर-बार का होना

लम्हों के इशारों से अयाँ होने लगा है
गलियों में मिरे यार की अग़्यार का होना

करता है बहुत याद शब-ओ-रोज़ मिरा दिल
फूलों के नगर में रह-ए-पुर-ख़ार का होना

अक़्लीम-ए-जफ़ा-केश में तुम देखना 'जाफ़र'
लाज़िम है पस-ए-दर किसी दीवार का होना
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Jafar Sahni
ज़वाल-ए-उम्र के पर्दे में है हिजाब कहाँ
वुफ़ूर-ए-शौक़ से लबरेज़ अब गुलाब कहाँ

किरन किरन से फ़साना हसीन लिखता था
चला गया वो फ़ुसूँ कार-ए-आफ़ताब कहाँ

नुमूद-ए-सुब्ह को देता सदा चला आए
हमारी रात में बाक़ी है ऐसा ख़्वाब कहाँ

हर इक क़दम पे ख़िरद के निशान मिलते हैं
तुझे छुपा के मैं रक्खूँ दिल-ए-ख़राब कहाँ

सुनहरे वक़्त में रेग-ए-रवाँ ये फूल खिला
वो क़िस्सा प्यार का ले कर गए हैं ख़्वाब कहाँ

सियह सफ़ेद घटा आसमाँ पे फैली थी
पर उस के जाल में आया वो माहताब कहाँ

तग़य्युरात ज़माने के उस ने बतलाए
मिरे सवाल के हक़ में था वो जवाब कहाँ

तलाश ख़्वाब में मेरे क़दम वो लेता था
ज़बाँ पे उस की है अब आप और जनाब कहाँ

सदा-ए-दर्द से वाक़िफ़ दिल-ए-नफ़स 'जाफ़र'
कोई बताए कि होता है दस्तियाब कहाँ
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