"क्या सच में सब अच्छा होता"
क्या सच में सब अच्छा होता
गर सब अच्छा होता?
क्या सच में सब अच्छा होता
गर सब अच्छा होता?
होती सारे ज़माने में सिर्फ़ खुशियाँ
गम का न कोई नाम-ओ-निशाँ होता।
सब होते गर सिर्फ़ बुलन्दियों पर,
गिरना क्या है, क्या किसी को पता होता?
न कोई बीमारी,न दुःख,न दर्द,न तक़लीफ़,
कुछ भी न होती गर ज़माने में,
तो क्या किसी को ख़ुदा का पता होता?
गर होती ही न ये ज़मीं,
तो फिर आसमाँ किसे पता होता?
क्या सच में अच्छा होता,
गर सब अच्छा होता?
तुम्हें सुख़ की क़द्र ही न होती,
गर तुम्हें न दुख का पता होता
न रुकते तुम्हारें पैर ज़मीं पर,
गर जो न ये आसमाँ होता
गर होते सब सिर्फ़ अमीर,
मुफ़लिसी का ना तुम्हें पता होता
इंसाँ को भी न होती क़द्र इंसाँ की
दहर में जो न नाम-ए-ख़ुदा होता
गर होती ही न रात जैसी शय दुनिया में,
दिन क्या है, किसी को न पता होता
गर तुम्हें कुछ न पता होता,
तो सोचो तुम्हें क्या पता होता?
सच तो ये है कि गर सब अच्छा होता
तो कुछ न अच्छा होता
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