हम तेरे इस शहर में आए मगर
तुझ से मिलते मिलता तू हमसे अगर
तुमने देखा है कभी जाकर उधर
हुस्न से लबरेज़ है उसका नगर
तुम भला कब मेरी मंज़िल हो गए
कब मैं भटका ज़िन्दगी की ये डगर
शौक़ के पीछे गुज़र हो ही गई
भर गया है अब गुनाहों का गगर
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