सदा करता रहा है बस सफ़र कोई
रहा है दूर सबसे उम्र भर कोई
उदासी और तन्हाई रही मुझ में
मुझे खाता रहा अन्दर से डर कोई
मिले कोई मुझे मेरी तरह का शख़्स
ख़ुदा ने जो उतारा हो अगर कोई
पड़े हैं जान के लाले तबाही है
सरल है क्या मुहब्बत की डगर कोई
मिरा भी हाल पूछे देखले मुझको
करे मुझ पर करम की इक नज़र कोई
करूँ ताज़ीम क़दमों की सदा उसके
गली से जो करे तेरी गुज़र कोई
कि मुझ पर ज़ुल्म ढाए मैं फ़िलिस्तीं हूँ
न छोड़ी ज़ुल्म ढाने में कसर कोई
बदलते मंज़रों से इल्म होता है
कि होगा हादसा पेश-ए-नज़र कोई
As you were reading Shayari by Azhan 'Aajiz'
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