क्या पता है ज़िंदगी होती है कैसी ग़म में इक के
आपने क्या ज़िंदगी जी है कभी भी ग़म में इक के
कहता था वो लौट कर आते नहीं जाते हैं जो लोग
फिर उसी ने फूँक दी सिगरेट कितनी ग़म में इक के
इश्क़ में बरबाद बच्चे ने किया शिद्दत से ख़ुद को
माँ कमाकर ला रही दो वक़्त रोटी ग़म में इक के
खेल खेला था जुए ने हो गया बरबाद घर ये
इससे अच्छा था ये बन जाता शराबी ग़म में इक के
बेवफ़ा हूँ और पक्का बेवफ़ा इस सच को माना
बाद इसके ज़िंदगी मेरी भी गुज़री ग़म में इक के
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