कभी दुख के मारे कभी शाद में
ये आँखें तरसती तेरी याद में
जो शायर ग़म-ए-हिज्र से बच गया
उसे मुफ़लिसी खा गई बाद में
दुखी होनी थी तेरी बेटी कभी
ज़मीं पैसा ही देखा दामाद में
मेरी रूह में ऐसे उर्दू बसी
बसे माँ का दिल जैसे औलाद में
तवज्जोह मिले इस सुख़न को बहुत
अमाँ वक़्त लगता है ईजाद में
महज़ पेट भरती है मेरी पगार
सुकूँ मिलता है मुझको बस दाद में
मेरी शायरी डगमगा जाती है
तेरी याद आती है तादाद में
मोहब्बत में आबाद का सुख नहीं
मोहब्बत का है लुत्फ़ बर्बाद में
तरीक़े लगाए थे काफ़ी मगर
वो हर बार बोली नहीं बाद में
लगा दिल परिंदे का सय्याद से
लगा सारा ही दश्त फ़रियाद में
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