पहले पहल तो प्यार का वादा किया गया
फिर मेरी ज़िन्दगी का ही सदक़ा लिया गया
वादा किया गया के ख़ुशी देगें हर घड़ी
लेकिन हरेक रोज़ नया ग़म दिया गया
मेरे बग़ैर जो नहीं जीते थे एक पल
फिर एक उम्र किस तरह उनको जिया गया
अमृत तो फूँक फूँक के पीता था मैं कभी
ज़ह्रे फ़िराक़ मुझसे ये कैसे पिया गया
जिसने जलाया आस्था का दीप शह्र में
धूनी रमाके शहर से वो जोगिया गया
मानिंद क़ाफ़िया के जो मेरी ग़ज़ल में था
क़िस्मत की मार देखो के वो क़ाफ़िया गया
मैंने कुमार चाक-ए-गिरेबाँ नहीं सिया
मुझसे ये ज़ख़्म-ए-दिल भला कैसे सिया गया
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