मुझे अफ़लाक पर इक घर बनाना है
ज़मीं को छोड़कर उस घर में जाना है
ख़ता मुझको है झूठे शाइरों से अब
ग़ज़ल की उम्र को उनसे बचाना है
मुझे जाकर ख़याली महफ़िलों में फिर
ग़ज़ल की ख़ूबियो को गुनगुनाना है
मैं जिनका काम करता हूँ यहाँ हर रोज़
चलो फिर अब उन्हीं को आज़माना है
ज़मीं में फल रही जो बेटियों को अब
सितारों सा उन्हें तो जगमगाना है
थकन चलने में माना हो रही हमको
मगर हमको न ऐसे डगमगाना है
न हो कोई भी अच्छा राब्ता तो क्या
मगर हमको सभी से दिल मिलाना है
नहीं गर दाद हमको मिल रही है आज
हमें बस चार दिन ये दुख उठाना है
न दुनिया में मिला जो नाम वो यारो
ललित को शायरी में अब कमाना है
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