जब से देखा है ये बर्क़-ए-जमाल तुम्हारा
ख़ूब नहीं लगता कोई हम-साल तुम्हारा
शादी से पहले भी मिलने आ सकती हो
दो घर दूर है पीहर से ससुराल तुम्हारा
देखो अपनी ज़ुल्फ़ें आँखें लब ये यौवन
धरती से जन्नत तक है भौकाल तुम्हारा
पहली बार छुआ था तुम को तब हैरत थी
क्या चूमूँ लब माथा या फिर गाल तुम्हारा
कब अल्फ़ाज़ तुम्हारे होंगे मेरी बहजत
कब मेरे आँसू होंगे रूमाल तुम्हारा
तुम को देखने वाली आँखें नोच न लूँ मैं
प्यार न बन जाए जी का जंजाल तुम्हारा
कब मुझ पर भी होगी रहमत जान तुम्हारी
हिज्र मनाता रहता हूँ हर साल तुम्हारा
प्यार करो तो ऐसा चोट लगे गर उस को
तो हो जाए 'मिलन' शिकस्ता-हाल तुम्हारा
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