सहराओं से उत्कट रवानी की तरफ़
मैं चल दिया हूँ आज पानी की तरफ़
हाथों से बजरी सा फिसलता जा रहा
है बढ़ रहा बचपन जवानी की तरफ़
ये उम्र ही तो है मोहब्बत करने की
मैं जा रहा हूँ इक दिवानी की तरफ़
दौलत की जिस-जिस को भी ताक़त मिल गई
वो बढ़ रहा है हुक्मरानी की तरफ़
हम इम्तिहाँ भी ले चुके हैं उसका और
अब बढ़ना होगा जावेदानी की तरफ़
अब मुल्क में ग़ुर्बत भी छाने वाली है
है ही नहीं कोई किसानी की तरफ़
इंसानियत का मरना तो ज़ाहिर ही है
सब जा रहे हैं बद-गुमानी की तरफ़
जो सुन के दिल महसूस कर पाए चलो
इक ऐसी ही अफ़ज़ल कहानी की तरफ़
As you were reading Shayari by Milan Gautam
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