बरसात के ही साथ खिली धूप आज है
कुदरत भी करती कैसे अजब इम्तिज़ाज है
घर बेटी का बसाने में ख़ुद बाप बिक गया
ऐसा जहेज़ नाम का फ़ासिद रिवाज़ है
होती नहीं हैं आँख भी अब बे-बसी पे नम
ख़ुद का जनाज़ा ढोता ये मुर्दा समाज है
फिरते हैं रोज़ अपने तजस्सुस में दर-ब-दर
हम को न दूजा इस के सिवा काम-काज है
थोड़ा ग़म-ए-हयात में भी हँस जो लेता हूँ
सब पूछते हैं मुझ से कि क्या इसका राज़ है
तू जो गया है छोड़ के कोई भी ग़म नहीं
थोड़ी न मेरा दिल ये तिरा मोहताज है
तन्हा गुज़ार देंगे ये बाक़ी की ज़िंदगी
हम को न तुझ से दूसरे की एहतियाज है
क्या माजरा है दिल ये धड़कता है बे सबब
वो याद कर रहे हैं या ये इख़्तिलाज है
माना कि वो कबीर बड़ा बद-मिज़ाज है
पर दर्द-ए-दिल का मेरे वही इक इलाज है
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