हरम हो या सनम- ख़ाना कहीं भी दिल नहीं लगता
जहाँ भी हो चले आना कहीं भी दिल नहीं लगता
वो मस्जिद हो कि मय-ख़ाना कहीं भी दिल नहीं लगता
अरे वो जान-ए-जानाना कहीं भी दिल नहीं लगता
अगर समझा तो ये समझा कि अब तक कुछ नहीं समझा
अगर जाना तो ये जाना कहीं भी दिल नहीं लगता
यहाँ मैं हूँ वहाँ तुम हो वहाँ तुम हो यहाँ मैं हूँ
चले आना न शर्माना कहीं भी दिल नहीं लगता
सुराही हाथ में लेकर कहाँ जाता है ऐ साक़ी
इधर ला भर दे पैमाना कहीं भी दिल नहीं लगता
वही मैं हूँ वही तुम हो वही घर है वही दर है
वही है मेरा काशाना कहीं भी दिल नहीं लगता
जनाब-ए-शैख़ से शादाब हम कह कर ख़ुदा हाफ़िज़
चले हैं सू-ए-मय-ख़ाना कहीं भी दिल नहीं लगता
As you were reading Shayari by Shadab Shabbiri
our suggestion based on Shadab Shabbiri
As you were reading undefined Shayari