अब वो सूरत नज़र नहीं आती
आँख क्यों मेरी भर नहीं आती
दिल के दरिया में क्यों मोहब्बत की
अब कोई भी लहर नहीं आती
फिर रही है शहर में भटकी हुई
क्यों ख़ुशी मेरे घर नहीं आती
यार मैं तो मरीज़-ए-इश्क़ नहीं
'नींद क्यों रात भर नहीं आती'
गुल की रग से टपक रहा है लहू
ख़ार की चश्म-ए-तर नहीं आती
जिसका मैं मुंतज़िर हूँ बरसों से
क्यों ख़ुदा वो सहर नहीं आती
या इलाही हो ख़ैर क़ासिद की
उनकी अब कुछ ख़बर नहीं आती
आबले ज़ेरे पा निकल आए
और मंज़िल नज़र नहीं आती
मैं मुसलसल सदाएँ देता हूँ
और सदा लौट कर नहीं आती
दिल नहीं रहता संग हो जाता
आह इस से अगर नहीं आती
शायरी करते हो सही है 'शजर'
पर तुम्हें ख़ूब तर नहीं आती
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