जो ख़्वाब देखा है मैंने वो ख़्वाब लिक्खूँगा
मैं उसकी आँखो लबों पर किताब लिक्खूँगा
लबों को तितलियाँ लिक्खूँगा जुगनू आँखों को
और उसके चेहरे को मैं माहताब लिक्खूँगा
फिर उस किताब के अन्दर सुनो 'शजर' ज़ैदी
मैं उसके लहजे की शीरी पे बाब लिक्खूँगा
मरीज़-ए-इश्क़ जो हैं ला इलाज उनके लिए
तुम्हारी आँखों को मैं फ़ैज़याब लिक्खूँगा
मैं उसके चेहरा-ए-अनवर को बा ख़ुदा मुर्शिद
कभी क़मर तो कभी आफ़ताब लिक्खूँगा
अगर वो पूछेगी ख़त में के चाय कैसी लगी
उसे जवाब में मैं ला-जवाब लिक्खूँगा
फ़रीज़ा अपनी मोहब्बत का यूँ निभाऊँगा
ग़ज़ल में उसको सदा बा हिजाब लिक्खूँगा
अज़ाब मुझ पे जो नाज़िल हुए हैं हिज्र के बाद
मैं ख़त में उसको वो सारे अज़ाब लिक्खूँगा
हज़ारों बाब मोहब्बत के हैं किताबों में
मैं अब किताबों में फ़ुर्क़त पे बाब लिक्खूँगा
क़लम उठाऊँगा जब भी मैं ज़िन्दगी में शजर
मता-ए-जान का हुस्न-ओ-शबाब लिक्खूँगा
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