तिरे हाथों से यूँ छोड़ा गया हूँ मैं

  - Karan Shukla

तिरे हाथों से यूँ छोड़ा गया हूँ मैं
कि अब तो हर तरफ़ बिखरा पड़ा हूँ मैं

हराना ज़िंदगी आसाँ नहीं इतना
बहुत गिरकर ज़मीं से तो उठा हूँ मैं

जिसे यूँ ही रखा रहने दिया हो बस
तिरे लब तक न आई वो दवा हूँ मैं

समय का फ़ैसला हक़ में नहीं वर्ना
उड़ा इक बार जो फिर तो हवा हूँ मैं

कभी महसूस करना अपनी साँसों में
कि लेता साँस क्या अब भी बचा हूँ मैं

हराया वक़्त के हाथों गया बेशक
मगर तेरे लिए अब भी बड़ा हूँ मैं

यही तेरा नहीं इक ग़म यहाँ अब तो
तमाशे कितने थे जिनसे लड़ा हूँ मैं

वो अपनी रौशनी अक्सर दिखाता है
कभी रौशन जिसे करते बुझा हूँ मैं

उदासी के परे भी दुनिया कोई थी
जिसे ख़्वाबों का मंज़र कह रहा हूँ मैं

वहाँ तू जा नहीं सकता कभी सुन ले
कहीं फिर जिस बुलंदी से गिरा हूँ मैं

ख़ुशी से शहर सारा घूमा है फिर आज
मगर उस इक गली से तो ख़फ़ा हूँ मैं

हुआ क्या है दिवानेपन को मेरे अब
न जाने उससे क्यूँ लड़ भिड़ रहा हूँ मैं

  - Karan Shukla

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