सियासी नफ़रतों की ज़द में आएँगे हमीं कब तक
भिगो कर शाह रक्खेगा लहू में आस्तीं कब तक
कई कंकर वफ़ा की झील में मैं फेंक आया हूँ
उभर कर सत्ह पर आएँगे देखें तहनशीं कब तक
भरम के पाँव की ज़ंजीर को सच तोड़ ही देगा
किसी के झूठ पर कोई करेगा भी यक़ीं कब तक
रखेगा वक़्त उन के रू-ब -रू भी आइना इक दिन
जहाँ के ऐब ही देखा करेंगे नुक़्ता- चीं कब तक
निगाहों से ही वो हर शख़्स को काफ़िर बना देगी
बचेगी ये हवस के साये से रूह-ए-अमीं कब तक
अजब नफ़रत बहाता है लहू इंसाँ का इंसाँ ही
लहू से तर-बतर होगी बताओ ये ज़मीं कब तक
हुई पत्थर सिफ़त अब तो किसी की मुंतज़िर आँखें
भला ये देखतीं आख़िर रुख़े-माहे-मुबीं कब तक
बता कब तक करूँ सजदा तेरी दहलीज़ पर आख़िर
झुकाऊँ मैं जबीं अपनी भला ऐ मह-जबीं कब तक
ग़ज़ल की शक्ल में ढालूँगा कब तक अपने दर्दो-ग़म
तराशूँगा मैं काग़ज़ पर ये सूरत-ए-नगीं कब तक
न जाने कब रिहा इस क़ैद से हम होंगे ऐ साहिल
सताएँगे हमारी ज़ीस्त को ये कुफ़्र-ओ-दीं कब तक
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