उजड़ चुकी है हरिक शाख बर्ग-ओ-बार नहीं
बहार में भी हमारे लिए बहार नहीं
हर एक शख़्स ख़ुदा को समझता है अदना
ख़ता पे अपनी कोई भी तो शर्म-सार नहीं
यक़ीन तुझको नहीं है जो मेरी चाहत का
मुझे भी तेरी वफ़ाओं प ऐतबार नहीं
गुलों ने पहन लिया है फ़रेब का चश्मा
बहार जिसको समझते हैं वो, बहार नहीं
रहे वो दोस्त कि दुश्मन, है सारे मौक़ा-परस्त
हमारा कोई, कहीं भी तो ग़म-गुसार नहीं
बिछड़ के उससे ये कहने की बात भर है बस
उसे भी चैन नहीं है मुझे क़रार नहीं
बता दे साक़ी तुझे इन्तिज़ार है किसका
मैं पी चुका हूँ, यहाँ और बादा-ख़्वार नहीं
मैं तेरी बात प वाइज़ यक़ीन कैसे करूँ?
यहाँ किसी को ख़ुदा का भी ऐतिबार नहीं
हम ऐसे शख़्स के पिंजर में क़ैद हैं साहिल
हमारे वास्ते कोई रहे-फ़रार नहीं
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