नमस्कार साथियों
आज की क्लास में हम जिस बहर के बारे में जानेंगे उसका नाम है मुतक़ारिब मुसद्दस सालिम। यह बहर अरूज़ की सबसे कम रुक्न वाली बहरों में से एक है। यह बहर देखने में बहुत सरल है मगर इस बहर में अपने ख़याल को ढाल पाना बहुत मुश्किल। इसकी मुश्किलात का अंदाज़ा आप इस तरह से लगा सकते हैं कि अपको इस बहर में लिखी हुई ग़ज़लें बड़ी मशक्कत के बाद मिलेंगी, हो सकता है न भी मिलें। अपनी बातों को और स्पष्ट करने के लिए मैं आपको अब इसके nomenclature से रू-ब-रू कराता हूँ।
नामकरण:
मुतक़ारिब मुसद्दस सालिम
122/ 122/ 122
यह बहर पाँच हर्फ़ी अरकान से बनी है। इस बहर की मूल रुक्न 122 यानी फ़ऊलुन है जिसे 'अरूज़-शास्त्र' में मुतक़ारिब कहते हैं।
चूँकि इसमें दोनों मिसरों को मिलाकर रुक्नों की कुल संख्या छह है इसलिए इसे मुसद्दस अर्थात छः घटक वाली और सभी अरकान में से किसी में कोई परिवर्तन नहीं किया है तो इसे हम सालिम (सलामत) कहते हैं।
इस प्रकार इस बहर का नाम बनता है:-
बहर-ए-मुतक़ारिब मुसद्दस सालिम
इस बहर में शायरों ने बहुत ही कम ग़ज़लें लिखी हैं क्योंकि इतनी छोटी बहर में अपने ख़याल को ढाल पाना मुश्किल हो जाता है। इतनी मुश्किलों के बावजूद हम आपके लिए इस बहर में लिखी हुई कुछ ग़ज़लें लाए हैं।
सो हाज़िर है आपके सामने जनाब कैफ़ उद्दीन ख़ान की एक मशहूर ग़ज़ल -
26568
आइए अब हम इस ग़ज़ल के कुछ मिसरों की तक़तीअ करके देखते हैं -
हवस की/ सहूलत/ हटा दे
122/122/122
बदन इश्/क़ को रा/स्ता दे
122/122/122
अधूरा/ है वो शख़्/स लेकिन
122/122/122
जिसे चा/हे कामिल/ बना दे
122/122/122
नहीं आ/ सकूँगा/ निकल कर
122/122/122
मुझे मे/रे अंदर/ गिरा दे
122/122/122
मरूँगा/ इसी से/ मैं इक दिन
122/122/122
मुझे ज़िन्/दगी की/ दुआ दे
122/122/122
आइए अब इसी बहर में लिखी कुछ और ग़ज़लें देखते हैं-
52107
52109
52108
39890
52550
52551
52568
52552
ये थीं इस बहर पर लिखी हुई कुछ बेहतरीन ग़ज़लें। उम्मीद है आप इस series से बहुत कुछ सीख कर अपने इल्म-ओ-फ़न में इज़ाफ़ा कर रहे होंगे।
आज की क्लास में बस इतना ही, मिलते हैं अगले blog में एक और बहर के साथ।
धन्यवाद।
Sawtantar Dev Arif
Great Sir
Great job