ऊपर लिखा शेर मैं आपकी ओर से ख़ुद को समर्पित कर लेता हूँ और साथ ही ये उम्मीद भी करता हूँ कि आप लोगों ने ज़रा भी देर न करते हुए इसकी तक़ती'अ तो कर ही ली होगी। और समझ गए होंगे कि इस ब्लॉग में जिस बहर की छान-फटक होने वाली है, ऊपर का शेर भी उसी बहर में लिखा है।
(यहाँ तक आते हुए मैं समझता हूँ कि आप लोग हमें इस भूल पर क़ाबिल-ए-मुआफ़ी समझते हैं)
जी, आप लोग समझदार हैं (नहीं भी हैं तो हो जाएँगे), आप समझ गए हैं कि ऊपर के शेर की तक़ती'अ इस तरह है:
फ़ऊलुन/फ़ऊलुन/फ़ऊलुन/फ़ऊलुन
122/122/122/122
जिसे नियमों की भाषा में "बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम" कहते हैं।
हम ज़रा ग़ौर करें तो ये नाम सुना सुना सा लग रहा है ना!
जी, पिछले ब्लॉग की ही तो बात है बस दोनों में एक लफ़्ज़ का फ़र्क है पिछले ब्लॉग का मुसद्दस (छह अर्कान) अब मुसम्मन (आठ अर्कान) कर दिया गया है।
दो रुक्न और जोड़ने का क्या फ़ायदा हुआ?
पिछली बहर मुतक़ारिब मुसद्दस सालिम में ख़्याल का तालमेल बहर से बिठाने में काफ़ी दिक़्क़तें पेश आ रही थीं,चूँकि बहर ही इतनी छोटी थी और तो और पिछले बहर पर लिखी ग़ज़लें सूरज की तमतमाती रौशनी में भी ढूँढने से नहीं मिल रही थीं।
जबकि दोनों मिस्रों में एक-एक रुक्न बढ़ा देने से मुश्किलें बिल्कुल आसान हो जाती हैं।
ख़्याल और बहर के बीच का तालमेल भी बन जाता है और इस बहर की ग़ज़लें ही इतनी हैं कि "एक अँधेरे कमरे में हज़ार सुइयाँ रखी हुई हों, कहीं न कहीं तो आपका हाथ सुई पे पड़ ही जाएगा।"
आहंग और अरूज़ के लेखक लिखते हैं कि "मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम बहर की आहंग सबसे आसान है।" इसमें बिल्कुल दो राय नहीं, चाहे वो वैदिक काल से "भुजंगप्रयात" में लिखे जाने वाले हिन्दुस्तानी श्लोक/छंद हों या अरबी/फ़ारसी के "मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम बहर" की ग़ज़लें या शेर, दोनों की ही आहंग में बिल्कुल जुड़वा बहनों सा रिश्ता है। इस बात से ये साबित होता है कि शुरूआत से ही कवियों/शायरों से लेकर आज के आधुनिक बॉलीवुड गाने लिखने वाले गीतकारों ने इसी बहर (आहंग) को इज़हार-ए-ख़याल के लिए ज़्यादा मददगार समझा।
उदाहरण स्वरुप कुछ हिन्दी गानों के titles हैं जिन्हें इसी बहर के आहंग पर लिखा गया है:-
~ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
~मुझे दुनिया वालों शराबी न समझो
~अकेले अकेले कहाँ जा रहे हो
~मोहब्बत की झूठी कहानी पे रोए
~जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा
~बने चाहे दुश्मन ज़माना हमारा
~हुज़ूर इस क़दर भी न इतरा के चलिए
~हमें और जीने की चाहत न होती
~इशारों इशारों में दिल लेने वाले
नामकरण/Nomenclature:-
चूँकि इस बहर का नाम ब्लॉग नंबर 7 के नाम से मिलता जुलता है, तो इसे भी बनाने का तरीक़ा पिछले ब्लॉग की बहर की तरह ही है।
मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम (122/ 122/ 122/ 122)
यह बहर पाँच हर्फ़ी अरकान से बनी है। इस बहर की मूल रुक्न 122 यानी फ़ऊलुन है जिसे 'अरूज़-शास्त्र' में मुतक़ारिब कहते हैं।
चूँकि इसमें दोनों मिसरों को मिलाकर रुक्नों की कुल संख्या आठ है इसलिए इसे मुसम्मन अर्थात आठ घटक वाली और सभी अरकान में से किसी में कोई परिवर्तन नहीं किया है तो इसे हम सालिम (सलामत) कहते हैं।
इस प्रकार इस बहर का नाम बनता है:-
बहर-ए-मुतक़ारिब मुसद्दस सालिम
पड़ाव में आगे बढ़ते हुए अब हम एक उस्ताद शायर मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ाँ 'ग़ालिब' की एक मशहूर ग़ज़ल की तक़ती'अ करेंगे।