आदाब अज़ीज़ों!


ऐन वादे के मुताबिक हम बहर सीरीज का नौवां ब्लॉग लेकर हाजिर हैं जिसमें हम मुतक़ारिब बहर की दूसरी प्रचलित आहंग पर अपना पाठ आगे बढ़ाएँगे। उम्मीद करता हूँ कि आप लोग भी समय-समय पर इस बहर सीरीज़ का अच्छे से अध्ययन करने पर कई बारीकियाँ जो बहर से जुड़ी हुई हैं, उन्हें धीरे-धीरे करके सीख रहे हैं और अच्छी कामना करते हुए सीखते रहेंगे।


ख़ुदा-ए-सुख़न का एक शेर मुलाहिज़ा फरमाएँ:-


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ख़्यालों में न खोते हुए पहले तक़ती'अ करेंगे तो आपको पता चल जाएगा कि इसकी तक़ती'अ यूँ है:-


फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़'अल


122/122/122/12


ये एक मुफ़रद मुज़ाहिफ़ (सालिम मुज़ाहिफ़) बहर है चूँकि सभी रुक्न सालिम हैं जिनमें से बस एक आख़िर के सालिम रुक्न पर हमने ज़िहाफ़ का इस्तेमाल किया है।नाम स्वरूप इसे बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़ कहते हैं।


ये नाम भी पिछले ब्लॉग के नाम से मिलता जुलता है साथ ही इसकी ख़ासियत भी मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम बहर से मेल खाती है। उन ख़ासियतों को हम आप तक प्रश्नोत्तरी के माध्यम से प्रस्तुत करना चाहेंगे।


क्या मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़ बहर से मेल खाती हुई कोई हिंदी छंद है?


जी हाँ, है, जिसे हम शक्ति छंद कहते हैं, हिंदी/संस्कृत काव्य संग्रह में इस छंद में लिखे काफ़ी श्लोक, गीत, दोहे आदि आपके नज़रों से गुज़र चुके होंगे। उदाहरण के तौर पर:


जला दीप तम को घटाया गया


बिना सूर्य के पथ दिखाया गया


पढ़ाया सुता को पिता ने तभी


सबल नारियों को बनाया गया


~मधु शुक्ला


इस ब्लॉग के शुरू में कहा गया "मुतक़ारिब की दूसरी प्रचलित आहंग", इस बिंदु को और सरलता से समझाएँ।


हाँ, बिल्कुल सही टिप्पणी उठाई है। दरअसल दूसरी प्रचलित आहंग कहने का हमारा तात्पर्य ये था कि 'मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम' (122/122/122/122) बहर के बाद हमारे यहाँ उर्दू/हिंदी शायरों एवं बॉलीवुड लेखकों की ग़ज़ल/संगीत की जिस बहर में सबसे ज़्यादा भरमार है वो बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़ (122/122/122/12) ही है, या यूँ कहें कि इस बहर में कही गई ग़ज़लें इसके सालिम आहंग (122×4) में कही गई ग़ज़लों के बराबर संख्या को पहुँचती हैं।


इस आहंग में लिखे गए कुछ गानों के titles निम्न-लिखित हैं:-


~बहारों ने मेरा चमन लूटकर


~मेरे दोस्त क़िस्सा ये क्या हो गया


~सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं


~तुम्हारी नज़र क्यों ख़फ़ा हो गई 


~दिखाई दिए यूं कि बेख़ुद किया


~हवाओं पे लिख दो हवाओं के नाम


इस बहर में आप अपने भावनाओं (ख़्याल) का इज़हार शायरी में और गहरे और सटीक तरीक़े से कर सकते हैं। अगर इज़हार-ए-ख़्याल के लिए लफ़्ज़ों का सही एवं उपर्युक्त चयन हो तो शायर हिंदी/उर्दू ग़ज़ल की सुंदरता और मिठास को आगे बढ़ाने के कार्य पर प्रगतिशील रहता है।


इसे उदाहरण स्वरूप समझाने के लिए बशीर बद्र का एक शेर मुलाहिज़ा फरमाएँ:



चूँकि इस बहर में रचनाएँ लिखी जाएँ तो वो गाने जैसे धुनों का एहसास दिलाती हैं, तो कई बार तरन्नुम में शेर कहने पर मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम में कहे गए मिसरे मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़ में हो जाते हैं या इसके विपरित भी ऐसी परिस्थितियाँ हो जाती हैं।


Nomenclature/नामकरण:-


अब हमने मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम (122/122/122/122) के आख़िरी रुक्न 122 को ज़िहाफ़ के एक प्रकार हज़फ़ का इस्तेमाल करते हुए फ़'ऊ(12) कर दिया, जिसे हमने फ़'अल (12) से बदल लिया और बदले हुए रुक्न को नियमानुसार महज़ूफ़ क़रार दिया। इस प्रकार बहर का निम्नलिखित स्वरूप प्राप्त होता है:


फ़ऊलुन/फ़ऊलुन/फ़ऊलुन/फ़'अल


122     /  122   /  122   / 12


चलिए अब निम्नलिखित सारांश देखते हैं:-


बहर का नाम - मुतक़ारिब 


कुल अरकान - 8 (दोनों मिस्रों को मिलाकर इसलिए मुसम्मन (आठ घटकों वाली)


मुज़ाहिफ़ रुक्न - महज़ूफ़ 


सो ऊपर लिखे सारांश का उपयोग करते हुए हम इस बहर का नाम इस तरह लिखेंगे:-


बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़


सबक़ को आगे बढ़ाते हुए हम आपको जनाब आदिल मंसूरी की इस बहर में लिखी एक बेहतरीन ग़ज़ल और उसकी तक़ती'अ पेश करते हैं।



तक़ती'अ:-


बदन पर/ नई फ़स्/ल आने/ लगी


122/122/122/12


हवा दिल/ में ख़्वाहिश/ जगाने/ लगी


122/122/122/12


कोई ख़ुद-/कुशी की/ तरफ़ चल/ दिया


122/122/122/12


उदासी/ की मेहनत/ ठिकाने/ लगी


122/122/122/12


जो चुप-चा/प रहती/ थी दीवा/र पर


122/122/122/12


वो तस्वी/र बातें/ बनाने/ लगी


122/122/122/12


ख़यालों/ के तारी/क खँडरा/त में


122/122/122/12


ख़मोशी/ ग़ज़ल गुन/गुनाने/ लगी


122/122/122/12


ज़रा दे/र बैठे/ थे तन्हा/ई में


122/122/122/12


तिरी या/द आँखें/ दुखाने/ लगी


122/122/122/12


इस बहर में लिखे कुछ और ग़ज़लें हम आपके सामने पेश कर रहे हैं।एक बार मुलाहिज़ा फरमा कर कृपया उनकी तक़ती'अ करने की एक कोशिश ज़रूर करें।






कहाँ खो गई रूह की रौशनी
बता मेरी रातों की आवारगी

मैं जब लम्हे लम्हे का रस पी चुका
तो कुछ और जागी मिरी तिश्नगी

अगर घर से निकलूँ तो फिर तेज़ धूप
मगर घर में डसती हुई तीरगी

ग़मों पे तबस्सुम की डाली नक़ाब
तो होने लगी और बे-पर्दगी

मगर जागना अपनी क़िस्मत में था
बुलाती रही नींद की जल-परी

जो तामीर की कुंज-ए-तन्हाई में
वो दीवार अपने ही सर पर गिरी

हुई बारिश-ए-संग उस शहर में
हमें भी मिला हक़्क़-ए-हम-साएगी

गुज़ारी है कितनों ने इस तरह उम्र
बिल-अक़सात करते रहे ख़ुद-कुशी

कोई वक़्त बतला कि तुझ से मिलूँ
मिरी दौड़ती भागती ज़िंदगी

जिन्हें साथ चलना हो चलते रहें
घड़ी वक़्त की किस की ख़ातिर रुकी

में जीता तो पाई किसी से न दाद
में हारा तो घर पर बड़ी भीड़ थी

मुझे ये अंधेरे निगल जाएँगे
कहाँ है तू ऐ मेरे सूरज-मुखी

हुआ हम पे अब जिन का साया हराम
थी उन बादलों से कभी दोस्ती

निकाले गए इस के मअनी हज़ार
अजब चीज़ थी इक मिरी ख़ामुशी
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Khalilur Rahman Azmi

फ़क़ीराना आए सदा कर चले
कि म्याँ ख़ुश रहो हम दुआ कर चले

जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम
सो इस अहद को अब वफ़ा कर चले

शिफ़ा अपनी तक़दीर ही में न थी
कि मक़्दूर तक तो दवा कर चले

पड़े ऐसे अस्बाब पायान-ए-कार
कि नाचार यूँ जी जला कर चले

वो क्या चीज़ है आह जिस के लिए
हर इक चीज़ से दिल उठा कर चले

कोई ना-उमीदाना करते निगाह
सो तुम हम से मुँह भी छुपा कर चले

बहुत आरज़ू थी गली की तिरी
सो याँ से लहू में नहा कर चले

दिखाई दिए यूँ कि बे-ख़ुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले

जबीं सज्दा करते ही करते गई
हक़-ए-बंदगी हम अदा कर चले

परस्तिश की याँ तक कि ऐ बुत तुझे
नज़र में सभों की ख़ुदा कर चले

झड़े फूल जिस रंग गुलबुन से यूँ
चमन में जहाँ के हम आ कर चले

न देखा ग़म-ए-दोस्ताँ शुक्र है
हमीं दाग़ अपना दिखा कर चले

गई उम्र दर-बंद-ए-फ़िक्र-ए-ग़ज़ल
सो इस फ़न को ऐसा बड़ा कर चले

कहें क्या जो पूछे कोई हम से 'मीर'
जहाँ में तुम आए थे क्या कर चले
Read Full
Meer Taqi Meer



हो पूरब की या पश्चिमी रौशनी
अँधेरों से लड़ती रही रौशनी

क़तारों से क़तरे उलझते रहे
ज़मानों को मिलती रही रौशनी

इबादत की किश्तें चुकाते रहो
किराये पे है रूह की रौशनी

किसी नूर की छूट है हर चमक
ज़मीं पर भला कब उगी रौशनी

अँधेरों पे दुनिया का दिल आ गया
फ़ना हो गई बावली रौशनी

सितारों पे जा कर करोगे भी क्या
जो हासिल नहीं पास की रौशनी

उजालों में भी सूझता कुछ नहीं
तू रुख़सत हुआ, छिन गई रौशनी

गमकती-चमकती रही राह भर
परी थी वो या संदली रौशनी

वो घर, घर नहीं; वो तो है कहकशाँ
जहाँ तन धरे लाड़ली रौशनी

बहुत जा रहे हो वहाँ आजकल
तो क्या तुम पे भी मर मिटी रौशनी

ये चर्चा बहुत चाँद-तारों में है
मुनव्वर को किस से मिली रौशनी
Read Full
Naveen c Chaudhary


सारांश:-


हमने इस ब्लॉग में मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़ बहर पर लिखी गई चंद ग़ज़लों और विशेषताओं से आप लोगों को रू-ब-रू करवाया। ग़ज़लों की तरह पाबंद और आज़ाद नज़्म लिखने के ख़ातिर भी ये बहर काफ़ी उपयोगी है। ख़ासकर "आज़ाद नज़्म लिखते हुए हमें बस इतना ख़्याल रहे कि प्रत्येक मिसरों की समाप्ति 12 या 121 के रुक्न पर हो"।


यहाँ हमारा ब्लॉग पूरा हो चुका है इसी के साथ मैं इजाज़त चाहूँगा उम्मीद है कि अगले ब्लॉग में फिर मुलाक़ात हो तब तक के लिए Team Poetistic के जानिब से आप लोगों का धन्यवाद।


सीखते और सिखाते रहें