फ़िक्र है माह के जो शहर-बदर करने की
है सज़ा तुझ पे ये गुस्ताख़ नज़र करने की
कह हदीस आने की उस के जो किया शादी मर्ग
नामा-बर क्या चली थी हम को ख़बर करने की
क्या जली जाती है ख़ूबी ही में अपनी ऐ शम्अ'
कह पतंगे के भी कुछ शाम-ओ-सहर करने की
अब के बरसात ही के ज़िम्मे था आलम का वबाल
मैं तो खाई थी क़सम चश्म के तर करने की
फूल कुछ लेते न निकले थे दिल-ए-सद-पारा
तर्ज़ सीखी है मिरे टुकड़े जिगर करने की
उन दिनों निकले है आग़ुश्ता ब-ख़ूँ रातों को
धुन है नाले को कसो दिल में असर करने की
इश्क़ में तेरे गुज़रती नहीं बिन सर पटके
सूरत इक ये रही है उम्र बसर करने की
कारवानी है जहाँ उम्र अज़ीज़ अपनी 'मीर'
रह है दरपेश सदा उस को सफ़र करने की
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