हर पत्ता पेड़ों का साथी थोड़ी है
तुझको ये बात समझ आती थोड़ी है
बिछड़े मुद्दत होने को है फिर भी वो
ज़िंदा तो है अब तक बाक़ी थोड़ी है
वैसे तो हारा हूँ ख़ुद से भी शायद
ऐसे ये जंग अभी हारी थोड़ी है
आँखों में सिमटा है जैसे इक सैलाब
यूँ ही आवाज़ मिरी भारी थोड़ी है
वो कहता था ये हर झगड़े में हमसे
तुमने अपनी ग़लती मानी थोड़ी है
क़ाबू में कर लेता है बातों से वो
ये ख़ूबी है उसकी ख़ामी थोड़ी है
करता है तू हमको जैसे नज़रअंदाज़
ऐसा कर जाने पे माफ़ी थोड़ी है
क्या ग़ुस्से में कुछ भी बोलेगा 'साकेत'
ग़ुस्सा इतना तुझपे भारी थोड़ी है
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